नागा जाति : नागा भारत की प्रमुख जनजातियों में से एक है। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य नागालैंड, जिसमें नंगा पर्वत श्रेणियां फैली हुई हैं, नागा जनजाति का मूल निवास स्थान है।
नागा शब्द का अर्थ : 'नागा' शब्द की उत्पत्ति के बारे में कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह शब्द संस्कृत के 'नागा' शब्द से निकला है, जिसका अर्थ 'पहाड़' से होता है और इस पर रहने वाले लोग 'पहाड़ी' या 'नागा' कहलाते हैं। कच्छारी भाषा में 'नागा' से तात्पर्य 'एक युवा बहादुर लड़ाकू व्यक्ति' से लिया जाता है। 'नागा' का अर्थ 'नंगे' रहने वाले व्यक्तियों से भी है। उत्तरी-पूर्वी भारत में रहने वाले इन लोगों को भी 'नागा' कहते हैं।
कुछ विद्वानों का मत है कि नागा संन्यासियों के अखाड़े आदि शंकराचार्य के पहले भी थे, लेकिन उस समय इन्हें अखाड़ा नाम से नहीं पुकारा जाता था। इन्हें बेड़ा अर्थात साधुओं का जत्था कहा जाता था। पहले अखाड़ा शब्द का चलन नहीं था। साधुओं के जत्थे में पीर और तद्वीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुगलकाल से शुरू हुआ।
कुछ अन्य इतिहासकार यह मानते हैं कि भारत में नागा संप्रदाय की परंपरा प्रागैतिहासिक काल से शुरू हुई है। सिंधु की घाटी में स्थित विख्यात मोहनजोदड़ो की खुदाई में पाई जाने वाली मुद्रा तथा उस पर पशुओं द्वारा पूजित एवं दिगंबर रूप में विराजमान पशुपति की प्रतिमा इस बात का प्रमाण है कि वैदिक साहित्य में भी ऐसे जटाधारी तपस्वियों का वर्णन मिलता है। भगवान शिव इन तपस्वियों के अराध्य देव हैं।
सिकंदर महान के साथ आए यूनानियों को अनेक दिगंबर साधुओं के दर्शन हुए थे। बुद्ध और महावीर भी इन्हीं साधुओं के दो प्रधान संघों के अधिनायक थे। जैन धर्म में जो दिगंबर साधु होते हैं और हिंदुओ में जो नागा संन्यासी हैं वे दोनों ही एक ही परंपरा से निकले हुए हैं। इस देश में नागा जाति भी होती है जो नागालैंड में रहती है।
कुंभ से पहले कहां रहते हैं नागा साधु, कहां सोते हैं और क्या खाते हैं
निर्वस्त्र होकर चलते, शरीर पर भभूत और रेत लपेटे, नाचते-गाते, उछलते-कूदते, डमरू-ढफली बजाते नागा साधुओं का जीवन हमेशा से ही रहस्यमयी रहा है। वह कहां से आते हैं और कहां गायब हो जाते हैं इस बारे में किसी को ज्यादा जानकारी नहीं होती। जूना अखाड़े के प्रवक्ता महंत हरी गिरि के मुताबिक अखाड़ों में आए यह नागा सन्यासी इलाहाबाद, काशी, उज्जैन, हिमालय की कंदराओं और हरिद्वार से आए हैं। इन में से बहुत से संन्यासी वस्त्र धारण कर और कुछ निर्वस्त्र भी गुप्त स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं और फिर 6 वर्ष बाद यानी अगले अर्धकुंभ के मौके पर नासिक आएंगे। आमतौर पर यह नागा सन्यासी अपनी पहचान छुपा कर रखते हैं।
कई नागा संन्यासी उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में जूनागढ़ की गुफाओं या पहाडिय़ों से आये हैं। नागा संन्यासी किसी एक गुफा में कुछ साल रहते है और फिर किसी दूसरी गुफा में चले जाते हैं। इस कारण इनकी सटीक स्थिति का पता लगा पाना मुश्किल होता है। एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी इसी तरह गुफाओं को बदलते और भोले बाबा की भक्ति में डूबे ये नागा जड़ी-बूटी और कंदमूल के सहारे पूरा जीवन बिता देता हैं। कई नागा जंगलों में घूमते-घूमते सालों काट लेते हैं और अगले कुंभ या अर्ध कुंभ में नजर आते हैं।